Farmer || किसान || DIBYA BLOGGING
एक किसान | (जिसे कृषक भी कहा जाता है) कृषि में लगा हुआ व्यक्ति है, जो भोजन या कच्चे माल के लिए जीवित जीवों का पालन-पोषण करता है। यह शब्द आम तौर पर उन लोगों पर लागू होता है जो खेत की फ़सल, बागों, दाख की बारियां, मुर्गी पालन या अन्य पशुओं को पालने का कुछ संयोजन करते हैं। एक किसान के पास खेती योग्य भूमि हो सकती है या दूसरों के स्वामित्व वाली भूमि पर एक मजदूर के रूप में काम कर सकता है, लेकिन उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में, एक किसान आमतौर पर एक खेत का मालिक होता है, जबकि खेत के कर्मचारी को खेत में काम करने वाले या फार्महैंड के रूप में जाना जाता है। हालाँकि, इतने दूर के अतीत में, एक किसान ऐसा व्यक्ति नहीं था जो श्रम (ध्यान, भूमि या फसलों) द्वारा (या पौधे, फसल, आदि) के विकास को बढ़ावा देता है या सुधारता है या जानवरों (पशुधन या मछली के रूप में) को जन्म देता है।
भारतीय किसान का जीवन सभ्यता और संस्कृति के इस ऊँचे भवन के नीचे अब फटेहाल और नंगा है। भारतीय किसान का मुख्य धंधा कृषि है। कृषि ही उसकी भक्ति है और कृषि ही उसकी शक्ति है। कृषि ही उसकी निद्रा है और कृषि ही उसका जागरण है। इसलिए भारतीय किसान कृषि के दुख दर्द और अभाव को बड़े ही साहस और हिम्मत के साथ सहता है। अभाव को बार बार प्राप्त करने के कारण उसका जीवन ही अभावग्रस्त हो गया है। उसने अपने जीवन को अभाव का सामना करने के लिए पूरी तरह से लगा दिया, फिर भी वह अभावों से मुक्त न हो सका।
रेखाचित्र 3: कृषि में वृद्धि (%) स्रोत: एक नजर में कृषि सांख्यिकी, 2015, कृषि मंत्रालय; पीआरएस। | रेखाचित्र 4: विभिन्न क्षेत्रों का जीडीपी में योगदान (%) स्रोत: सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय; पीआरएस। |
रेखाचित्र 5: कृषि उत्पादन (मिलियन टन)
स्रोत: कृषि मंत्रालय; पीआरएस।
भाग्यवादी होना भारतीय किसान की सबसे बड़ी विडम्बना है। वह कृषि के उत्पादन और उसकी बरबादी को अपनी भाग्य और दुर्भाग्य की रेखा मानकर निराश हो जाता है। वह भाग्य के सहारे अकर्मण्य होकर बैठ जाता है। वह कभी भी नहीं सोचता कि कृषि कर्मक्षेत्र है, जहाँ केवल कर्म ही साथ देता है, भाग्य नहीं। वह तो केवल यही मानकर चलता है कि कृषि कर्म तो उसने कर दिया है, अब उत्पादन होना न होना तो विधाता के वश की बात है। उसके वष की बात नहीं है। इसलिए सूखा पड़ने पर, पाला मारने पर या ओले पड़ने पर वह चुपचाप ईश्वराधीन का पाठ पढ़ता है। इसके बाद तत्काल उसे क्या करना चाहिए या इससे पहले किस तरह से बचाव या निगरानी करनी चाहिए थी, इसके विषय में प्राय भाग्यवादी बनकर वह निश्चिन्त बना रहता है। रूढि़वादी और परम्परावादी होना भारतीय किसान के स्वभाव की मूल विशेषताएँ हैं। यह शताब्दी से चली आ रही कृषि का उपकरण या यंत्र है। इस को अपनाते रहना उसकी वह रूढि़वादिता नहीं है। तो और क्या है? इसी अर्थ में भारतीय किसान परम्परावादी, दृष्टिकोण का पोषक और पालक है, जिसे हम देखते ही समझ लेते हैं। आधुनिक कृषि के विभिन्न साधनों और आश्वयकताओ। को विज्ञान की इस धमा चौकड़ी प्रधान युग में भी न समझना या अपनाना भारतीय किसान की परम्परावादी दृष्टिकोण का ही प्रमाण है। इस प्रकार भारतीय किसान एक सीमित और परम्परावादी सिद्धान्तों को अपनाने वाला प्राणी है। अंधविश्वासी होना भी भारतीय किसान के चरित्र की एक बहुत बड़ी विशेषता है। अंधविश्वासी होने के कारण भारतीय किसान विभिन्न प्रकार की सामाजिक विषमताओं में उलझा रहता है- कृषि क्षेत्र में देश की लगभग आधी श्रमशक्ति कार्यरत है। हालांकि जीडीपी में इसका योगदान 17.5% है (2015-16 के मौजूदा मूल्यों पर)।
- पिछले कुछ दशकों के दौरान, अर्थव्यवस्था के विकास में मैन्यूफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्रों का योगदान तेजी से बढ़ा है, जबकि कृषि क्षेत्र के योगदान में गिरावट हुई है। 1950 के दशक में जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान जहां 50% था, वहीं 2015-16 में यह गिरकर 15.4% रह गया (स्थिर मूल्यों पर)।
- भारत का खाद्यान्न उत्पादन प्रत्येक वर्ष बढ़ रहा है और देश गेहूं, चावल, दालों, गन्ने और कपास जैसी फसलों के मुख्य उत्पादकों में से एक है। यह दुग्ध उत्पादन में पहले और फलों एवं सब्जियों के उत्पादन में दूसरे स्थान पर है। 2013 में भारत ने दाल उत्पादन में 25% का योगदान दिया जोकि किसी एक देश के लिहाज से सबसे अधिक है। इसके अतिरिक्त चावल उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 22% और गेहूं उत्पादन में 13% थी। पिछले अनेक वर्षों से दूसरे सबसे बड़े कपास निर्यातक होने के साथ-साथ कुल कपास उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 25% है।
- हालांकि अनेक फसलों के मामलों में चीन, ब्राजील और अमेरिका जैसे बड़े कृषि उत्पादक देशों की तुलना में भारत की कृषि उपज कम है (यानी प्रति हेक्टेयर जमीन में उत्पादित होने वाली फसल की मात्रा)।
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रेखाचित्र 2: कृषि विकास (% में)
स्रोत: एक नजर में कृषि सांख्यिकी, 2015; पीआरएस।
- ऐसे कई कारण हैं, जोकि कृषि उत्पादकता को प्रभावित करते हैं, जैसे खेती की जमीन का आकार घट रहा है और किसान अब भी काफी हद तक मानसून पर निर्भर हैं। सिंचाई की पर्याप्त सुविधा नहीं है, साथ ही उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग किया जा रहा है जिससे मिट्टी का उपजाऊपन कम होता है। देश के विभिन्न भागों में सभी को आधुनिक तकनीक उपलब्ध नहीं है, न ही कृषि के लिए औपचारिक स्तर पर ऋण उपलब्ध हो पाता है। सरकारी एजेंसियों द्वारा खाद्यान्नों की पूरी खरीद नहीं की जाती है और किसानों को लाभकारी मूल्य नहीं मिल पाते हैं।
- इस संबंध में कमिटियों और एक्सपर्ट संस्थाओं द्वारा पिछले कई वर्षों से अनेक सुझाव दिए जा रहे हैं, जैसे कृषि की जमीन की पट्टेदारी के कानून बनाना, कुशलतापूर्वक पानी का उपयोग करने के लिए लघु सिंचाई तकनीक को अपनाना, निजी क्षेत्र को संलग्न करते हुए अच्छी क्वालिटी के बीजों तक पहुंच को सुधारना और कृषि उत्पादों की ऑनलाइन ट्रेडिंग के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार की शुरुआत करना।
भारत में कृषि की स्थिति
कृषि उत्पादकता कई कारकों पर निर्भर करती है। इनमें कृषि इनपुट्स, जैसे जमीन, पानी, बीज एवं उर्वरकों की उपलब्धता और गुणवत्ता, कृषि ऋण एवं फसल बीमा की सुविधा, कृषि उत्पाद के लिए लाभकारी मूल्यों का आश्वासन, और स्टोरेज एवं मार्केटिंग इंफ्रास्ट्रक्चर इत्यादि शामिल हैं। यह रिपोर्ट भारत में कृषि की स्थिति का विवरण प्रस्तुत करती है। इसके अतिरिक्त कृषि उत्पादन और पैदावार के बाद की गतिविधियों से संबंधित कारकों पर चर्चा करती है।
2009-10 तक देश की आधी से अधिक श्रमशक्ति (53%), यानी 243 मिलियन लोग कृषि क्षेत्र में कार्यरत थे। इस क्षेत्र से अपनी आजीविका कमाने वाले लोगों में भूस्वामी, काश्तकार, जोकि जमीन के एक टुकड़े में खेती करते हैं, और खेत मजदूर, जो इन खेतों में मजदूरी करते हैं, शामिल हैं। पिछले 10 वर्षों के दौरान कृषि उत्पादन अस्थिर रहा है, इसकी वार्षिक वृद्धि 2010-11 में 8.6%, 2014-15 में -0.2% और 2015-16 में 0.8% थी। रेखाचित्र 3 में पिछले 10 वर्षों के दौरान कृषि क्षेत्र में वृद्धि की प्रवृत्तियों को प्रदर्शित किया गया है।
रेखाचित्र 7: उर्वरकों की खपत (लाख टन)
स्रोत: एक नजर में कृषि सांख्यिकी 2015; पीआरएस।
कृषि मशीनरी
कृषि उत्पादकता पर मशीनीकरण का भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। कृषि मशीनरी का प्रयोग करने से खेतिहर मजदूरों को दूसरी गतिविधियों में लगाया जा सकता है। मशीनों का इस्तेमाल करने से जुताई, बीजों एवं उर्वरकों का छिड़काव और कटाई का काम ज्यादा अच्छी तरह से किया जा सकता है और इनपुट की लागत में भी कमी हो सकती है। इससे खेती का काम किफायती हो सकता है।
कृषि में मशीनीकरण की स्थिति भिन्न-भिन्न गतिविधियों में अलग-अलग है, हालांकि मशीनीकरण का समूचा स्तर विकसित देशों के मुकाबले काफी कम है। यहां 50% से भी कम मशीनों का इस्तेमाल होता है जबकि विकसित देशों में 90% के करीब| मशीनीकरण का उच्चतम स्तर (60%-70%) कटाई, छंटाई की गतिविधियों और सिंचाई (37%) में पाया जाता है। मशीनों का सबसे कम इस्तेमाल बुवाई और रोपाई में किया जाता है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए टिकाऊ, कम वजन और कम लागत वाले और विभिन्न फसलों एवं क्षेत्रों के अनुकूल उपकरणों को छोटे और सीमांत किसानों को उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
कृषि मशीनीकरण से जुड़ी चुनौतियों में भिन्न-भिन्न मिट्टी और जलवायु वाले क्षेत्र शामिल हैं जिनके लिए विशेष (कस्टमाइज) मशीनों की जरूरत होती है। साथ ही छोटी स्वामित्व वाली जमीनों के साथ संसाधनों तक सीमित पहुंच भी एक बड़ी समस्या है। मशीनीकरण का उद्देश्य यह होना चाहिए कि समय और श्रम की जरूरत कम पड़े, नुकसान कम से कम हो एवं श्रम की लागत में भी गिरावट आए, और इस प्रकार कार्यकुशलता बढ़ाई जाए।
पैदावार के बाद की गतिविधियां
स्टोरेज की सुविधाएं
फसल की कटाई के बाद स्टोरेज के बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होती है ताकि मौसम की प्रतिकूल स्थिति और परिवहन के दौरान होने वाले नुकसान को कम से कम किया जा सके। कटाई और कटाई बाद की प्रक्रियाओं के दौरान खाद्यान्न का नुकसान पिछले पांच वर्षों में बढ़ा है।18सबसे अधिक नुकसान सब्जियों और फलों (2015 में उत्पादन का 4.6%-15.9%), दालों (6.4%-8.4%) और तिलहन (5.3%-9.9%) के मामलों में हुआ है।
खाद्यान्न का नुकसान खेती के सभी स्तरों पर होता है- किसान, ढुलाई करने वाला, थोक व्यापारी, खुदरा व्यापारी। इस नुकसान के कुछ कारण हैं, फसल बर्बाद होना, कटाई की अनुचित तकनीक, खराब पैकेजिंग और परिवहन, और खराब स्टोरेज। देश में स्टोरेज सुविधाओं की स्थिति से जुड़ी कुछ समस्याओं में स्टोरेज की अपर्याप्त क्षमता और खराब स्थितियां हैं। जहां स्टोरेज क्षमता पर्याप्त है, वहां गोदाम उपयुक्त नहीं हैं। कहीं गोदाम नमी भरे हैं तो कहीं सुदूर जगह पर स्थित हैं।
केंद्रीय पूल के खाद्यान्नों को केंद्रीय भंडारण निगम (सीडब्ल्यूसी) के गोदामों रखा जाता है जोकि खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के तहत आता है। दिसंबर 2016 तक सीडब्ल्यूसी 9.7 मिलियन टन की कुल क्षमता वाले 438 गोदाम चला रहा था। राज्य भंडारण निगम राज्य स्तर पर गोदामों को प्रबंधित करते हैं। दिसंबर 2016 तक 19 निगम 26 मिलियन टन की कुल क्षमता वाले 1,757 गोदाम चला रहे थे।
कृषि उत्पादों का स्टोरेज करने की एक प्रणाली और भी है जिसे सौदेबाजी करने लायक भंडारण प्रणाली कहा जाता है। वेयरहाउसिंग डेवलपमेंट एंड रेगुलेटरी अथॉरिटी (डब्ल्यूआरडीए) इसका रेगुलेशन करती है। इस प्रणाली के तहत उत्पादों को स्टोर करने वाले किसानों को एक रसीद जारी की जाती है जिसमें गोदाम की लोकेशन और स्टोर किए गए उत्पादों की गुणवत्ता और मात्रा का ब्यौरा होता है। अगर किसान कृषि ऋण प्राप्त करना चाहता है तो यह रसीद कोलेट्रल का काम करती है। 2015 तक डब्ल्यूआरडीए के तहत पंजीकृत गोदामों की स्टोरेज क्षमता 118 मिलियन टन की थी। इसमें से 19 मिलियन टन निजी क्षेत्र और 15 मिलियन टन सहकारी क्षेत्र में आता था। बाकी का सरकारी स्टोरज के हिस्से था।
चूंकि खाद्य पदार्थ, जैसे कुछ फल और सब्जियां जल्दी खराब होकर बर्बाद हो जाती हैं, इसलिए उन्हें नष्ट होने से बचाने के लिए ठंडे तापमान पर स्टोर करना पड़ता है। देश में अनिवार्य वस्तु एक्ट, 1955 के तहत कोल्ड स्टोरेज आदेश, 1964 के माध्यम से कोल्ड स्टोरेज की सुविधाओं की शुरुआत की गई। देश में कोल्ड स्टोरेज के विकास की दिशा में कई चुनौतियां हैं, जैसे खेती की जमीन को औद्योगिक उपयोग के लिए इस्तेमाल करने के लिए भू-उपयोग में परिवर्तन करना पड़ता है और इस प्रक्रिया में विलंब होता है। इसके अतिरिक्त कृषि उत्पादों के कोल्ड स्टोरेज पर टैक्स छूट न मिलना, बिजली की पर्याप्त उपलब्धता न होना और किसानों की कोल्ड स्टोरेज तक पहुंच न होना भी समस्याएं पैदा करता है।
Very good Dost
ReplyDeleteThank you
DeleteGood job💯👍👍👍
ReplyDeleteThank you
Delete❣💓❣❣❣❣❣❣
ReplyDelete❤️❤️
DeleteNyc💞💞💞
ReplyDeleteThank you
DeleteHats óff ur bloging dost i can't imagine it .👌✌️🙋👌👆🙏🙏🙏
ReplyDeleteThank you Dost
DeleteOoo 😍😍😮
ReplyDelete🥰🥰❤️
Delete👌👌👌👍👍✌️
ReplyDeleteThank you❤️❤️
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